Hariyali Teej Ki Katha हरियाली तीज की कहानी



सावन मास के शुक्ल पक्ष के तृतीया तिथि को कहीं हरियाली तीज तो कहीं छोटी तीज तो कहीं शरावनि तीज मनायी जाती है।कजरी तीज जो हरियाली तीज के पंद्रह दिन बाद आती है। उसे बड़ी तीज कहते है भगवान शिव और माँ पार्वती के पुनः मिलन के उपलक्ष्य में मनायी जाने वाली हरियाली तीज के त्योहारों के बारे में कहा जाता हैं। की भगवान शिव अपनी अपनी पत्नी सती के आत्मदाह के बाद उनको खोने का दुःख सहन करने में असमर्थ थे।

Hariyali teej ki katha

इस दुःख के दौर में उन्होंने संसारिक मामलों में रुचि खो दी और तपस्या में लीन हो गए आदि शक्ति माता सती ने भगवान शिव शंकर को इस स्थिति से बाहर निकालने के लिए और शिव भगवान को पुन: पति के रूप में पाने के लिए 107 जन्म लिए। लेकिन वह असफल रही।

उनका 108 वां जन्म पर्वत राज हिमालय और रानी मैना वती की पुत्री पपार्वती कर रूप में हुआ था। अपने 108 वे जन्म में माँ पार्वती के कठोर तप से प्रसन्न होकर सावन मास के शुक्ल पक्ष की तृतीय तिथि को भगवान शिव माँ पार्वती के साथ विवाह करने के लिए तैयार हो गए।

तभी से ऐसी मान्यता है की इस व्रत को करने से माँ पार्वती प्रसन्न होकर अखंड सुहाग का आशीर्वाद देती है । तीज के दिन महिलाएं शिव पार्वती का पूजन करती है। तथा बिना खाए पीए पुरा दिन व्यतीत करती है। फिर अगले दिन सुबह स्नान और पूजा के बाद व्रत पूर्ण करके भोजन ग्रहण करती है।

इसी वजह से तीज का व्रत करवा चौथ से भी कठिन माना जाता है। हमारे देश के बड़े भाग में यही पूजन भादों के शक्ल पक्ष के तृतीया तिथि को मनाया जाता है। और उसे हरितालिका तीज कहते है । दोनों तीज में एक ही जैसा पूजन होता है और कथा भी एक जैसा है। आए शुरू करते है हरियाली तीज की कथा:-

Hariyali teej ki katha | Hariyali teej vrat katha



एक बार भगवान शिव ने जन कल्याण के लिए माँ पार्वती को उनकी कठिन तपस्या का स्मरण कराते हुए तीज की कथा सुनाई थी। भगवान शिव कहते है। हे गौरी पर्वत राज हिमालय पर गंगा के किनारे तुमने अपनी बल्या अवस्था में आधोमुखी होकर कठिन तप किया था।

इस अवधि में तुमने अन्न ना खाकर केवल हवा और सूखे पतों का सेवन किया। माघ की शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश करके तप किया था। बैसाख मास में जला देने वाली गर्मी में पंचा अग्नि में शरीर को तपाया श्रावन मास की मुस्लाधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न जल ग्रहण किए।

तुमने समय व्यतीत किया। तुम्हारी इसी कष्ट दायक तपस्या को देखकर तुम्हारे पिता बहुत दुःखी और नाराज होते थे। तब एक दिन तुम्हारी तपस्या और तुम्हारे पिता की नाराजगी को देखकर नारद जी तुम्हारे घर पधारे। तुम्हारे पिता द्वारा आने का कारण पूछने पर नारद जी ने कहा।

हे गिरीराज में भगवान विष्णु के भेजने पर यहाँ आया हूँ। आपकी पुत्री की घोर तपस्या प्रसन्न होकर विष्णु भगवान उससे विवाह करना चाहते है। इस बारे में आपकी क्या राय है नारद जी की बात सुनकर पर्वत राज हिमालय बहुत प्रसन्नता के साथ बोले हे – मुनि वर यदि स्वयं भगवान विष्णु मेरी कन्या का वरण करना चाहते है।

तो मुझे क्या आपति हो सकती है वे तो साक्षात ब्रह्म है। यह तो हर पिता की इच्छा होती है। की उसकी पुत्री सुख संपदा से युक्त पति के घर की लक्ष्मी बने। नारद जी पिता के स्वीकृति पाकर विष्णु के पास गए। और उन्हें विवाह तय होने का समाचार सुनाया परंतु जब तुम्हें इस विवाह के बारे में पता चला तो तुम्हें बहुत दुःख हुआ।

तुम्हें इस प्रकार से दुःखी देखकर तुम्हारी एक सहेली ने दुःख का कारण पूछा तब तुमने बताया कि मैंने सच्चे मन से भोले नाथ का स्मरण किया है। परन्तु मेरे पिता जी ने मेरा विवाह विष्णु जी के साथ तय कर दिया । मैं धर्म संकट में हूँ।

अब मेरे पास प्राण त्याग देने के अलावा और कोई उपाय नहीं है। तुम्हारी सखी बहुत समझदार थी। उसने कहा प्राण त्याग देना ही समस्या का हल नहीं होता संकट के समय धर्य से काम लेना चाहिए । नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है। की जिसे मन से पति के रूप में वरन कर लिया जीवन भर उसी से निर्वाह करे।

सच्ची आस्था और एक पूरी निष्ठा से तो भगवान भी असहाय है। मैं तुम्हें घने वन में ले चलती हूँ। जो साधना के लिए सही स्थान है। जहाँ तुम्हारे पिता तुम्हें खोज नहीं पायेंगे। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेगे।

तब अपनी सखी की बात मानकर तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर में ना पाकर बड़े चिंतित और दुखी हुए। वह सोचने लगे कि मैंने जो विष्णु जी से मेरी पुत्री का विवाह तय कर दिया। यदि विष्णु जी बारात लेकर आये। और कन्या घर पर नहीं मिली तो बहुत अपमान होगा।

ऐसा विचार करके पर्वत राज ने चारों और तुम्हारी खोज शुरू करवा दी। इधर वह सब तुम्हें खोजते रहे और उधर तुम नदी के किनारे एक गुफा में मेरी आराधना में लीन रहने लगी। श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को हस्त नक्षत्र के समय तुमने रेत शिवलिंग का निर्माण किया और रात भर मेरी स्तुति में गीत गाकर जागरण किया।

तुम्हारी इस कठोर तपस्या के प्रभाव से मेरा आसान हिलने लगा और में शीघ्र ही तुम्हारे पास पहुँच गया और तुमसे वर माँगने को कहा तब अपनी तपस्या के फलस्वरूप मुझे अपने सामने पाकर तुमने कहा में सच्चे मन से आपको पति के रूप में वरन कर चुकी हूँ।

यदि आप मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर यहाँ पधारे हैं। तो मुझे अपनी (अर्धगिनी) के रूप में स्वीकार कीजिए। तब में तथास्तु कह कर कैलाश पर्वत पर लौट आया सुबह होते ही तुमने पूजा की सारी सामग्री नदी में प्रवाहित करके अपनी सखी के साथ व्रत का पारन किया।

उसी समय पर्वत राज हिमालय अपने बंधु बंधवो के साथ तुम्हें खोजते हुए वहाँ पर पहुँच गए। तुम्हारी दसा देखकर वे बहुत दुःखी हुए और तुम्हारी इस कठोर तपस्या का कारण पूछा तब तुमने कहाँ पिता जी मैनें अपने जीवन का अधिकांश समय कठोर तपस्या का उद्देश्य भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करना था।

आज में अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूँ। आज मेरी तपस्या सफल हो गयी है।क्योंकि आप मेरी विवाह विष्णु जी के साथ करने का निश्चय कर चुके थे। इसलिए में अपने आराध्य की तलास में घर से चली गई। अब में आपके साथ घर इसी शर्त पर चलूँगी कि आप मेरा विवाह भगवान शिव के साथ करेगे।

तब पर्वत राज हिमालय ने तुम्हारी इच्छा को मान लिया और तुम्हें घर वापस ले गए और कुछ समय बाद उन्होंने पूरे विधि विधान के साथ हम दोनों का विवाह करवाया। भगवान शिव ने कहा हे- पार्वती सावन मास के शुक्ल पक्ष के तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था।

उसी के फलस्वरूप हम दोनों का विवाह हुआ है। भगवान शिव ने पार्वती जी से कहा जो भी स्त्रियाँ पूरी निष्ठा और श्रधा….. के साथ इस दिन व्रत करके तुम्हारी पूजा करेगी मैं उन्हें अचल सुहाग प्रदान करूँगा। इस प्रकार हरियाली तीज की कथा पूर्ण हुई।




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