माँ छिन्नमस्ता शक्ति का एक रूप हैं, जिन्हें अपना सर काटते हुए दिखाया गया है. उनकी गर्दन से फूटने वाला खून, जो प्राण का प्रतिक है और जिससे सभी जीवन का पोषण होता है, तीन धाराओं में बहता है- एक धारा उनके स्वयं के मुख में जाती है, जो दर्शाती है की वह स्वयंभू हैं, और बाकी की दो धाराएँ उनकी दो सहायिकाओं, डाकिनी और वार्निनी के मुख में जाती हैं, जो समस्त जीवन शक्ति को दर्शाती हैं.
छिन्न सिर आत्म-मुक्ति का प्रतीक है. सिर को छिन्न करके, वे अपने आपको अपने वास्तविक रूप में प्रकट करती हैं, जो अनियंत्रित, अनंत और मुक्त है. यह व्यक्तिगत सीमाओं और शतों से मुक्ति का प्रतीक है.
माता छिन्नमस्ताकवचं Maa Chinnamasta kavach
श्रीगणेशाय नमः।
देव्युवाच।
कथिताश्छिन्नमस्ताया या या विद्याः सुगोपिताः।
त्वया नाथेन जीवेश श्रुताश्चाधिगता मया॥ १॥
इदानीं श्रोतुमिच्छामि कवचं सर्वसूचितम्।
त्रैलोक्यविजयं नाम कृपया कथ्यतां प्रभो॥ २॥
भैरव उवाच।
श्रुणु वक्ष्यामि देवेशि सर्वदेवनमस्कृते।
त्रैलोक्यविजयं नाम कवचं सर्वमोहनम्॥ ३॥
सर्वविद्यामयं साक्षात्सुरासुर जयप्रदम्।
धारणात्पठनादीशस्त्रैलोक्यविजयी विभुः॥ ४॥
ब्रह्मा नारायणो रुद्रो धारणात्पठनाद्यतः।
कर्ता पाता च संहर्ता भुवनानां सुरेश्वरि॥ ५॥
न देयं परशिष्येभ्योऽभक्तेभ्योऽपि विशेषतः।
देयं शिष्याय भक्ताय प्राणेभ्योऽप्यधिकाय च॥ ६॥
देव्याश्च च्छिन्नमस्तायाः कवचस्य च भैरवः।
ऋषिस्तु स्याद्विराट् छन्दो देवता च्छिन्नमस्तका॥ ७॥
त्रैलोक्यविजये मुक्तौ विनियोगः प्रकीर्तितः।
हुंकारो मे शिरः पातु छिन्नमस्ता बलप्रदा॥ ८॥
ह्रां ह्रूं ऐं त्र्यक्षरी पातु भालं वक्त्रं दिगम्बरा।
श्रीं ह्रीं ह्रूं ऐं दृशौ पातु मुण्डं कर्त्रिधरापि सा॥ ९॥
सा विद्या प्रणवाद्यन्ता श्रुतियुग्मं सदाऽवतु।
वज्रवैरोचनीये हुं फट् स्वाहा च ध्रुवादिका॥ १०॥
घ्राणं पातु च्छिन्नमस्ता मुण्डकर्त्रिविधारिणी।
श्रीमायाकूर्चवाग्बीजै र्वज्रवैरोचनीय हूं॥ ११॥
हूं फट् स्वाहा महाविद्या षोडशी ब्रह्मरूपिणी।
स्वपार्श्वे वर्णिनी चासृग्धारां पाययती मुदा॥ १२॥
वदनं सर्वदा पातु च्छिन्नमस्ता स्वशक्तिका।
मुण्डकर्त्रिधरा रक्ता साधकाभीष्टदायिनी॥ १३॥
वर्णिनी डाकिनीयुक्ता सापि मामभितोऽवतु।
रामाद्या पातु जिह्वां च लज्जाद्या पातु कण्ठकम्॥ १४॥
कूर्चाद्या हृदयं पातु वागाद्या स्तनयुग्मकम्।
रमया पुटिता विद्या पार्श्वौ पातु सुरेश्र्वरी॥ १५॥
मायया पुटिता पातु नाभिदेशे दिगम्बरा।
कूर्चेण पुटिता देवी पृष्ठदेशे सदाऽवतु॥ १६॥
वाग्बीजपुटिता चैषा मध्यं पातु सशक्तिका।
ईश्वरी कूर्चवाग्बीजै र्वज्रवैरोचनीय हूं॥ १७॥
हूं फट् स्वाहा महाविद्या कोटिसूर्य्यसमप्रभा।
छिन्नमस्ता सदा पायादुरुयुग्मं सशक्तिका॥ १८॥
ह्रीं ह्रूं वर्णिनी जानुं श्रीं ह्रीं च डाकिनी पदम्।
सर्वविद्यास्थिता नित्या सर्वाङ्गं मे सदाऽवतु॥ १९॥
प्राच्यां पायादेकलिङ्गा योगिनी पावकेऽवतु।
डाकिनी दक्षिणे पातु श्रीमहाभैरवी च माम्॥ २०॥
नैरृत्यां सततं पातु भैरवी पश्चिमेऽवतु।
इन्द्राक्षी पातु वायव्येऽसिताङ्गी पातु चोत्तरे॥ २१॥
संहारिणी सदा पातु शिवकोणे सकर्त्रिका।
इत्यष्टशक्तयः पान्तु दिग्विदिक्षु सकर्त्रिकाः॥ २२॥
क्रीं क्रीं क्रीं पातु सा पूर्वं ह्रीं ह्रीं मां पातु पावके।
ह्रूं ह्रूं मां दक्षिणे पातु दक्षिणे कालिकाऽवतु॥ २३॥
क्रीं क्रीं क्रीं चैव नैरृत्यां ह्रीं ह्रीं च पश्चिमेऽवतु।
हूं हूं पातु मरुत्कोणे स्वाहा पातु सदोत्तरे॥ २४॥
महाकाली खड्गहस्ता रक्षःकोणे सदाऽवतु।
तारो माया वधूः कूर्चं फट्कारोऽयं महामनुः॥ २५॥
खड्गकर्त्रिधरा तारा चोर्ध्वदेशं सदाऽवतु।
ह्रीं स्त्रीं हूं फट् च पाताले मां पातु चैकजटा सती।
तारा तु सहिता खेऽव्यान्महानीलसरस्वती॥ २६॥
इति ते कथितं देव्याः कवचं मन्त्रविग्रहम्।
यद् धृत्वा पठनाद्भीमः क्रोधाख्यो भैरवः स्मृतः॥ २७॥
सुरासुर मुनीन्द्राणां कर्ता हर्ता भवेत्स्वयम्।
यस्याज्ञया मधुमती याति सा साधकालयम्॥ २८॥
भूतिन्याद्याश्च डाकिन्यो यक्षिण्याद्याश्च खेचराः।
आज्ञां गृह्णंति तास्तस्य कवचस्य प्रसादतः॥ २९॥
एतदेव परं ब्रह्मकवचं मन्मुखोदितम्।
देवीमभ्यर्च्य गन्धाद्यैर्मूलेनैव पठेत्सकृत्॥ ३०॥
संवत्सरकृतायास्तु पूजायाः फलमाप्नुयात्।
भूर्जे विलिखितं चैतद् गुटिकां काञ्चनस्थिताम्॥ ३१॥
धारयेद्दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा यदि वान्यतः।
सर्वैश्वर्ययुतो भूत्वा त्रैलोक्यं वशमानयेत्॥ ३२॥
तस्य गेहे वसेल्लक्ष्मीर्वाणी च वदनाम्बुजे।
ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि तद्गात्रे यान्ति सौम्यताम्॥ ३३॥
इदं कवचमज्ञात्वा यो भजेच्छिन्नमस्तकाम्।
सोऽपि शस्त्रप्रहारेण मृत्युमाप्नोति सत्वरम्॥ ३४॥
॥ इति श्रीभैरवतन्त्रे भैरवभैरवीसंवादे
त्रैलोक्यविजयं नाम छिन्नमस्ताकवचं सम्पूर्णम्॥
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